कबीर
कबीर
गुरू - शिष्य हेरा
4 साखी - मात्रा -
13 (8+5) 11(8+3)
शिष्य पूजै गुरु आपना,
गुरु पूजे सब साध ।
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ।। 1 ।।
शिष्य-हृदी गुरु-पाऊले, संतपदी गुरु ठाम
म्हणे कबीर गुरुशिष्य
हे । नित्य अगम्य अगाध ।। 1 ।।
शिष्य अनन्य भावाने
आपल्या
गुरूचे
पूजन करत असतो तर गुरू असे साधुसज्जनांना
सर्वभावसमर्पित
असे पूजित असतो.
कबीर म्हणतात,
गुरु शिष्यांचा
संबंध अगम्य आणि आगाध आहे.
जनसामाम्यांना
तो कळणार नाही.
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देश दिशांतर
मैं फिरूं, मानुष बडा सुकाल ।
जा देखे सुख उपजै,
वाका पडा दुकाल ।। 2 ।।
देशोदेशी
भटकता,
भेटे जनसंभार
पाहुन ज्याला
सुख मिळे,
दुर्मिळ
ऐसा नार ।। 2 ।।
मी देशोदेशी भ्रमण करून खूप जग पाहिले.
माणसांची
कुठेच कमी नव्हती.
माणसांचा
सुकाळच
होता.
दुष्काळ
होता तो फक्त त्या सज्जनांचा,
ज्यांना
पाहून मनामधे
सुख,
शांती आपोआप उत्पन्न होईल.
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स्वामी
सेवक होय के, मन ही में मिलि जाय ।
चतुराई
रीझै नहीं, रहिए मन के मांय ।। 3 ।।
स्वामी
सेवक होऊनी, मिलन मनांचे होत
तेथे मखलाशी
नको,
एक विचार सुबोध ।। 3 ।।
जसे पाणी पाण्यात
मिसळून
जावे तसे स्वामी
आणि सेवकाचे
मन एकमेकात
मिळून गेलेले
असावे.
तेथे चतुराई,
मखलाशी
कामास येत नाही.
चतुराई
दाखवून
कोणी कोणाला
वश करू शकत नाही.
तेथे मनोमिलनच
व्हावे
लागते.
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गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना बिचारे
गुरु करे,
परै चौरासी
खानि ।। 4 ।।
प्यावे
पाणी गाळुनी, गुरु करणे जाणुन ज्ञान
विना विचार करता गुरू,
नित दुःखाची खाण ।। 4 ।।
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गुरु तो ऐसा चाहिए,
शिष सों कछु न लेय ।
शिष तो ऐसा चाहिए,
गुरु को सब कुछ देय ।। 5 ।।
गुरू असावा असा भला
, मागे
अल्प न मोल
शिष्य असावा असा भला । सर्वस्व
देइ मोल
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गुरु भया नहिं शिष भया,
हिरदे कपट न जाव
आलो पालो दुख सहै,
चढि पाथर की नाव ।। 6 ।।
गुरु भला ना शिष्य भला । असता कपट मनात
ऐल-पैल ना पोचवी । दुःखद दगडी नाव ।। 6
जोपर्यंत हृदयात कपट आहे,
मनात मखलाशी
आहे,
पोटात काळेबेरे
दडले आहे तोपर्यंत
तो गुरू गुरू नाही आणि शिष्य शिष्य नाही.
अशी परिस्थिती
दोघांसाठीही
दुःखद,
विनाशाला
कारण ठरते.
जसे दगडी नावेत चढून
(अज्ञान, मोह, मत्सर रूपी नावेत चढून ) ऐलतीर पैलतीर असा (भवसागराचा )कुठलाच तीर गाठता येत नाही.
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ऐसा कोई ना मिला, जासू कहूं निसंक ।
जासो हिरदा की कहूं,
सो फिर मारे डंक ।। 7 ।।
ज्याच्यापाशी
हृदय हे । उघडावे
मी निःशंक
कोणी मज ना भेटला । वर मारे मज डंख ।। 7 ।।
ज्याच्यापाशी निःशंकपणे आपलं मन मोकळं करावं असा आधार प्रत्येक
माणूस शोधत असतो.
माणूस आपलेपणाने
ज्याला
आपली व्यथा सांगावयास
जातो तो ती हसण्यावारीतरी
नेतो,
त्याच्या
दुःखावर
फुंकर घालण्याऐवजी
त्याची
उपेक्षा
तरी करतो नाही तर त्या दुःखिताचा
बरा भेद कळला म्हणून
गैरफायदा
घेऊन त्यालाच अशी काही अद्दल घडवतो की त्याला
कुठून आपण आपले मन मोकळे केले असे वाटावे.
म्हणून
कबीरजी
म्हणतात,
कोणाजवळ
मन मोकळ कराव असा मला एक माणूस सापडला
नाही.
सर्व जण सापासारखे
डंख मारणारेच
होते.
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ऐसा कोई ना मिला,
हम को दे उपदेश ।
भवसागर
में डूबते
, कर
गहि काढे केश ।। 8
आजवरी नच भेटला,
हित सांगे जो खास
केस धरुन काढे वरी,
भवाब्धितुन
बुडत्यास
।। 8 ।।
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हिरदे ज्ञान न उपजै,
मन परतीत न होय ।
ताको सद्गुरु
कहा करे,
घनघसि कुल्हर
न होय ।। 9
ज्ञानज्योत
उजळे न हृदि
, परतत्त्व
न स्पर्शे ज्यास
त्यासी सद्गुरु
काय करे,
ढग घासुन कुर्हाड न खास ।। 9 ।।
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जिन ढूंढ़ा तिन पाइयां,
गहरै पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा,
रहा किनारे
बैठ ।। 10
तटी बसुन मोती न मिळे , म्हणता पाणी खोल
तटी बसुन मी बापुडा
, बुडेन म्हणतो खोल
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सरबस सीस चढ़ाइये,
तन कृत सेवा सार ।
भूख प्यास सहे ताडना,
गुरुके
सुरति निहार ।। 11
सेवा करता गुरूपदी , अर्पावे सहजचि शिर / अर्पावे मस्तक खूप
गुरुमुखी दृष्टि ठेउनी , सोस क्रोध अन भूक
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जैसा ढूंढत मैं फिरुं,
तैसा मिला न कोय ।
ततवेता
तिरगुन
रहित
, निरगुन
सो रत होय ।। 12
शोधत ज्यासी
मी फिरे
, तसा
मिळणे मुश्किल
तत्त्ववेत्ता,
त्रिगुणरहित
, निर्गुणरत सत्शील ।। 12
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मात्रा - 13 (8+5) 11(8+3)
जो मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ।। 1
गृहस्थधर्म पालन करे । नर सत्शील
सुजाण
सज्जनसेवा, सत्य मुखी । धन्य धन्य तो जाण ।। 1
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बाना पहिरे सिंह का, चलै
भेड की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता
खावै काल ।। 2
आव आणि मी सिंह असा । लांडग्याचीच चाल
कोल्ह्याची बोली मुखी । काळ खात हे श्वान ।। 2
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माला तिलक लगाय के, भक्ति
न आयी हाथ ।
दाढी मूंछ मुंडाय के,
चले दुनी के साथ ।। 3
टिळे माळा सजला बहु । भक्ति न येई हात
दाढी मुंडन करुनही । समाजात नच स्थान ।। 3
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शब्द बिचारे पथ चलै, ज्ञान
गली दे पांव ।
क्या रमता क्या बैठता,
क्या गृह कंदला छांव ।। 4
विचार मनी `तत् त्वं असि' । तो ज्ञानपथी नित जाय
काय रमे वा बसे घरी । त्या गुहा सावली काय ।। 4
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कवीवरां गणती नसे । मुंडन करती साठ
चित्त करे अन्तर्मुखी, त्याची संगत गाठ ।। 5
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गृहस्थधर्म सेवाव्रति, साधुसंग आनंद
संतधर्म वैराग्य उरि , मनात नाही द्वंद्व ।। 6
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टिळे माळा वेश फुका । रामभक्ति
न्यारीच
करे परिधान जो तिला , सेवक त्याचे पाच ।। 7
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चाले चाल बगळ्याची, म्हणतो मी तर हंस
त्या कैचे मुक्तामणी , काळ करे त्या दंश ।। 8
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तनु बैरागी करे कुणि । मन बैरागी नच होय
सिद्धी वरते त्या नरा । जो बैरागी मन होय ।। 9
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मन काळे उजळे तनू , बगळा लबाड जाण
त्याहुनहि कावळा बरा, तनमन एकचि जाण ।। 10
कवीवरां गणती नसे । मुंडन करती साठ
चित्त करे अन्तर्मुखी, त्याची संगत गाठ ।। 5
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गृहस्थधर्म सेवाव्रति, साधुसंग आनंद
संतधर्म वैराग्य उरि , मनात नाही द्वंद्व ।। 6
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टिळे माळा वेश फुका । रामभक्ति
न्यारीच
करे परिधान जो तिला , सेवक त्याचे पाच ।। 7
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चाले चाल बगळ्याची, म्हणतो मी तर हंस
त्या कैचे मुक्तामणी , काळ करे त्या दंश ।। 8
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तनु बैरागी करे कुणि । मन बैरागी नच होय
सिद्धी वरते त्या नरा । जो बैरागी मन होय ।। 9
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मन काळे उजळे तनू , बगळा लबाड जाण
त्याहुनहि कावळा बरा, तनमन एकचि जाण ।। 10
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